Friday, November 27, 2009

शब्द गूंथे हैं

यूँही बैठे बैठे आज कुछ शब्दों को पिरोने की कोशिश करते करते एक ख्याल दिल में आया | आप के नज़र करता हूँ उम्मीद है आपको पसंद आएगा:

जंग लगे संदूक में पड़ी  हुई, सिलवटों में लिपटे कागज पे छपी हुई, एक मुरझाई सी फोटो है,
जब  भी  दिल  की  दस्तक  पे  वो  संदूक  खोलता हूँ  बोतल  निकालने  के  लिए,
एक  दबी सी सहमी  हुई हसीं  के साथ,
संदूक  बंद  कर देता  हूँ, दोबारा ना छूने का वादा करता हूँ.
जवाब  जो  नहीं  है, सिलवटें  हिसाब  मांगती  हैं.

 एक ज़माना था, हर बात का जवाब रखते थे हम भी,
आज दहलीज पे बैठी हुई बिल्ली की मानिद, सपनों से खाली सुर्ख आँखों में,
किसी वीरान सड़क पे, काफी उंचाई पे, लगे एक दिए की तरह,
सिर्फ हलकी सी उम्मीद है,
काबू नहीं है, मगर इंतज़ार है, किसी हरकत का,
शायद इसिलए बार बार संदूक खोलता हूँ,
कपड़ों की तह में सिर्फ यादें है और कुछ भी नहीं मगर फिर भी,
ये हलकी सी उम्मीद जो है इसके सहारे संदूक खोल लेता हूँ.

खुदा या तो कोई हरकत कर या इस उम्मीद को भी उसी संदूक में बंद कर दे,
अगर उम्मीद काबू नहीं कर सकता तो ले
मुझ नामुराद को किसी संदूक  के अन्दर कर दे!!

2 comments:

PraGar said...

बहुत खूब.. वाकई उम्दा लिखा है आपने.... :)

Dinesh Agarwal said...

Thank you Prashant.